Sunday, May 8, 2011

Bhado Majhi

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Saturday, May 7, 2011

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Monday, May 2, 2011

Bhado Majhi

 करप्शन का 'टॉयलेट ट्विस्ट'
पत्रकार हूं, अड्डाबाजी पेशे की जरूरत है। रात को नींद कहां आती। जबतक रेलवे स्टेशन की घड़ी में दो बजता नहीं देख लूं नींद आस-पास तक नहीं भटकती। रविवार की रात को भी कुछ ऐसा ही हुआ। आज इंडिया अगेंस्ट करप्शन के मेले में भीड़ बढ़ाकर मैैं भी लौटा था, जमशेदपुर में खूब भीड़ जुटी। लगा भ्रष्टाचार से लौहनगरी ही ज्यादा त्रस्त है, या फिर यहीं के लोग ज्यादा फुर्सतिया हैैं। खैर, रीगल मैदान में मैैं भी 'मुंडी गिनानेÓ के लिए शामिल हो गया। दिल साफ हो न हो, लेकिन मन में इतनी बात ठानी थी कि भीड़ के मामले में जमशेदपुर कमजोर न दिखे। शायद भ्रष्टाचार के खिलाफ मन में थोड़ी सी चिंगारी भी सुलग चुकी थी। मैदान में ईमानदारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लडऩे का संकल्प लेकर आया था, सो यह मन में जरूर ठाना था कि आज से एक हफ्ते 'करप्शन-फ्री वीकÓ मनाउंगा। वैसे भी करप्शन में लिप्त होने का मौका तो कम ही मिलता रहा है, अब यह ठान चुका था कि भ्रष्टाचार बर्दाश्त भी नहीं करुंगा।  लेकिन शाम के पांच बजे से रात के दो बजे तक की मेरी जिंदगी के छोटे से सफर के दौरान मुझे नीम से भी ज्यादा कड़वा अनुभव हुआ। इतना कड़वा कि शहर की एक भी गतिविधि मेरे गले से नीचे उतर ही नहीं रही थी। भ्रष्टाचार का कॉकटेल से हर किरदार मुझे नहाया नजर आया।
शुरुआत रीगल मैदान से ही हुई। उस जगह से, जहां मैने अपनी फटफटी शान से पार्क की थी। जल्दबाजी में गाड़ी सड़क किनारे लगा दी थी, लौटा तो पत्रकारिता की सारी ठसक उस समय डगमगाने लगी जब सीटी बजाते सिपाही ने गाड़ी पर हाथ रख दिया और बोला-का...हीरो, कहां चल दिए। यहां गाड़ी पार्क करना मना है।। मन में विचार आया कि पत्रकारिता झाड़ कर सिपाहीजी को चलता कर दूं, लेकिन ईमानदारी की पाठशाला से कसमे-वायदे खाकर लौट रहा था, सो सोचा कोई गलत काम न करुंगा। भारी मन से खुद को समझाया कि आज तो कम से कम  दो सौ रुपए फाइन दे ही दूं...। लेकिन मेरे मन के भीतर चल रहे 'वल्र्ड-वारÓ के खत्म होने से पहले ही सिपाहीजी अपना लार टपकने से रोक न सके, और सोले के सुरमा भोपाली के अंदाज में बोले- निकालों सौ रुपए...। फाइन करुंगा तो लगेंगे दो सौ...। मन किया कि ईमानदारी का लंबा-चौड़ा लैक्चर दे डालूं खाखी वाले चोर को। लेकिन खुद को संभाला और आई-कार्ड की चमकी दिखा कर भ्रष्टाचार को नमस्कार कर निकल गया। थोड़ी देर उस सिपाही को मन में कोसा कि सिपाही ने खुद तो भ्रष्टाचार किया ही भ्रष्टाचार का विरोध करने का फीता काटने उतरे नए खिलाड़ी को, यानी मुझे  ईमानदार भी नहीं बनने दिया। खैर यहां नहीं तो आगे सही की सोच कर बढ़ा स्टेशन की ओर। 20 की मस्त स्पीड में फटफटिया का फेफड़ा फूंकते बढ़ ही रहा था कि बस थोड़ी देर में लोग सड़क का डिवाइडर से मोटरसाइकिल की जंग कराते दिखे। हर कोई इस फिराक में दिखा कि डिवाइडर फांद कर  किसी तरह जंग जीत ले। जाम लगा नहीं था, सड़क खुली थी, फिर लोग बारिश से ठंडे हुए मौसम में पसीना क्यों बहा रहे...??? यह सवाल जेहन में ठक-ठक कर ही रहा था कि आगे दो पुलिसकर्मी फटफटी चेकिंग में मस्त दिखे। समझ गया... लोग बिना हेलमेंट...बिना लाइसेंस के सड़क पर तफरीह कर रहे थे, इसलिए मारे डर के डिवाइडर का जीना मुहाल किए हुए थे। ऐसे भगोड़ों को देखना नई बात नहीं थी, लेकिन आज यह सब भ्रष्टाचार विरोधी चश्मे से देख रहा था, इसलिए नोटिस में आ रहा था। अफसोस हुआ...लगा...हम ही बेइमान...दूसरों से कैसे करें ईमानदारी की उम्मीद। आगे बढ़ा तो सिपाहियों ने ऊपर से नीचे टटोल डाला। लाइसेंस देखा, हेलमेट की तस्दीक की। फिर कुछ बोलते न बना तो टूटे दिल से बोले ..जाइए...। उनका जाइए  बोलना ऐसा  था मानों वे मुझे ग्र्राहक मान रहे हों, और मुझसे उन्हें नाउम्मीदी मिली हो। यहां फिर अन्ना पर अफसोस हुआ, उनके अभियान के संभावित परिणाम की कल्पना कर अफसोस हुआ।
पुलिस वालों के नाउम्मीद चेहरों को दूसरा मुल्ला खोजने के लिए छोड़ आगे बढ़ा। अब बारी स्टेशन की थी। प्लेटफॉर्म पर पत्रकार मंडली पहले से ही अड्डाबाजी की ड्यूटी बजा रही थी। शरिक हुआ तो भ्रष्टाचार...अन्ना...अभियान...सबकी चर्चा चली। लेकिन आज मेरी आंखों में जो चश्मा चढ़ा था, वह हर किरदार में भ्रष्ट अंग टटोल रहा था। मंडली की आवाज पर 'मंत्रीÓ (चाय वाले को पत्रकार यहां प्यार से मंत्री बुलाते हैैं) ने चाय पेश की। पांच रुपए का एक प्याला। स्टेशन चार्ज। हर जगह चाय तीन रुपए में एवैलेवल है, लेकिन मंत्री स्पेशल यहां पांच रुपए पार है। खैर दूध महंगा भी हो चला है, सो मेरे चश्मे ने इसे हजम कर लिया। देर तक 'गपास्टिंगÓ चली। इंडिया से इंग्लैैंड तक और अन्ना से ओबामा तक पर हम कथित बुद्धिजीवियों ने बाल का खाल निकाल दिया। डेढ़ बजने को आये थे। तभी कोड़ा कांड की चर्चा की ओर मेरा ध्यान गया। प्लेटफॉर्म पर बने सुलभ शौचालय के ठीक बाहर दो मुसाफिर शौचालय संचालक को कोड़ा कांड की याद दिला-दिला कर खूब हड़का रहे थे। कहने मं दोनों की भषा उड़ीसा की लग रही थी। एक बोला-यहां कोड़ा ने तो करोड़ों का घोटाला किया ही किया, झारखंड में तो शौचालय तक में भ्रष्टाचार हावी है। महाशय के कथन पर पहले तो मुझे गुस्सा आया। लगा कि बाहर से आकर झारखंड को गाली....अभी औकात बताता हूं। लेकिन उनके तर्क और तथ्य पर  ध्यान गया तो वास्तव में हालात पर हंसना में आया और रोना भी। हुआ यूं कि एक महाशय शौचालय गए, लौटने पर शौचालय संचालक ने उनसे पांच रुपए मांग लिए। जबकि सरकारी रेट चार्ट में साफ-साफ लिखा था टायलेट जाने के दो रुपए। इसी बात पर बात बिगड़ी। शौचालय में भ्रष्टाचार देख दोनों महाशयों ने आसमान सिर पर उठा लिया। उनकी बात जायज भी थी, आखिर झारखंड में सदन से शौचालय तक के भ्रष्टाचार को उन्होंने खड़े-खड़े गिनवा दिया। शौचालय के बाहर देखते ही देखते अर्जुन मुंडा के ब्रांड झारखंड की ऐसी की तैसी हो गई। हिम्मत नहीं हुई उन दो महाशयों के मुंह लगने की, उल्टे मन किया कि शौचालय संचालक को दो-तीन हाथ जमा दिया जाए, लेकिन ख्याल आया कि सदन में भी ऐसी ही लूट मची है। वहीं बड़ी लूट, यहां छोटी लूट...। लेकिन लूट तो लूट होती है, और भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार। खैर आज का सफर भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू की गई जंग के संभावित नतीजे की ओर इशारा कर गया, लेकिन इतना जरूर अच्छा हुआ कि मेरी आंखों में भ्रष्टाचार को देख पाने वाला चश्मा चढ़ गया, जो कल तक नहीं था। इतना जरूर हुआ कि कल तक जो भ्रष्टाचार मेरे गले से अमृत की तरह उतर जाता था, आज वह नीम से ज्यादा कड़वा लग रहा था। अंत में अपने आप को यह सांत्वना देते घर के लिए ठंडी हवा खाते रवाना हो गया कि शायद मेरी आंखों में जो चश्मा चढ़ा वह बाकी की आंखों में भी चढ़ेगी, मेरे गले को जो कड़वा लगा वो दूसरों को भी कड़वा लगेगा...लेकिन यारों कम से कम शौचालय तक तो भ्रष्टाचार को गिरने मत दो। बड़े लोगों की बूरी आदलों से हम छोटे लोगों को तो दूर रखो। डायबिटिीज अमीरों को होने दो हमें मजदरी करते ही मरने के लिए छोड़ दो....। अपने अंदर सोए अन्ना को अब तो जागने दो....।   

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