Tuesday, January 14, 2014

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Saturday, May 11, 2013

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Tuesday, January 8, 2013


पेट पर फिर गोदी जाएंगी गर्म सलाखें

टुसू पर्व : रोंगटे खड़ी करने वाली है आदिवासी समुदाय की परंपरा  


कल्पना कीजिए कि आग में तपा कर गर्म की हुईं लोहे की लाल सलाखें हों और उससे जिंदा इंसान के पेट पर गोदा जाए तो कैसा लगेगा? ऐसी कल्पना ही रोंगटे खड़े कर देनेवाली हैं। लेकिन हकीकत में ऐसा किया जाता है। आदिवासी समुदाय के लोग टुसू पर्व (मकर पर्व) के मौके पर छोटे-छोटे बच्चों के पेट (नाभी के इर्दगिर्द) गर्म सलाख गोदते हैं। ऐसा सजा देने के लिए नहीं किया जाता बल्कि उसके भले के लिए किया जाता है। आप सोच रहे होंगे कि किसी को गर्म सलाखों से गोदने से कैसे किसी का भला हो सकता है, तो बता दें कि इस मामले में विज्ञान का तर्क काम नहीं करता बल्कि आदिवासी मान्यता का पालन करते हुए ऐसा किया जाता है। आदिवासी समुदाय में यह परंपरा काफी पुरानी है। समुदाय की मान्यता है कि ऐसा करने से पेट की बीमारियां ठीक होती हैं।
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परंपरा कुछ ऐसी : मकर संक्रांति के दिन सुबह-सुबह गांव के अखाड़े में अलाव जलाया जाता है। इसी अलाव में लोहे के तार (पतली सलाखें) गर्म की जाती है। सलाखें तब तक गर्म की जाती हैं जब तक वह सुर्ख लाल नहीं हो जातीं। इसके बाद पांच से दस वर्ष के बच्चों को खाट पर लिटा कर सलाख से दागा जाता है। कई वयस्क भी खुशी-खुशी अपने पेट पर सलाख दगवाते हैं। सलाख से जिन लोगों को दागा जाता है उन्हें पुरस्कार स्वरूप गुड़ पीठा व मूढ़ी भेंट किया जाता है।
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ऐसी है मान्यता : समुदाय के लोगों का दृढ़ विश्वास है कि पेट में सलाख गोदवाने के बाद आजीवन पेट की बीमारी से निजात मिल जाती है। कई लोग जिन्हें पेट संबंधी बीमारी हुई, इस विश्वास की पुष्टि भी करते हैं। वैसे कई गैर आदिवासी लोग भी इस अवसर पर अपना पेट गोदवाते हैं।
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इनकी सुनिए...
परसुडीह क्षेत्र के सरजामदा गांव में बच्चों को सलाख से गोदने वाले छोटू मुर्मू कहते हैं-'मैं कई वर्षों से सलाख गोदने का काम कर रहा हूं। इससे किसी को भी कभी नुकसान नहीं हुआ है। हर साल खुशी-खुशी लोग इस अनुष्ठान में शामिल होते हैं। सलाख गोदना कला है, इसमें इस बात का खास ख्याल रखना पड़ता है कि पेट के विशेष नसों के आसपास निर्धारित स्थान पर ही गोदा जाए। इससे निश्चित रूप से फायदा होता है। ऐसा न होता तो गर्म सलाखें अपने जिंदा शरीर पर कौन गोदवाता? यह परंपरा तंत्र विद्या पर नहीं बल्कि पुरानी व्यावहारिक शारीरिक चिकित्सा पद्धति पर आधारित है।Ó
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भादो माझी  

Thursday, March 15, 2012

संथाली फिल्म महोत्सव के विवाद का 'चैप्टर क्लोजÓ


Bhado Majhi : शहर के आदिवासी दर्शकों को इस बार दो-दो फिल्म महोत्सव देखने का मौका मिलेगा। ऐसा इसलिए क्योंकि दो-दो फिल्म महोत्सव आयोजित किए जा रहे हैं। एक फिल्म महोत्सव 11 से 15 अप्रैल तक चलेगा तो दूसरा पांच मई को आयोजित किया जाएगा। ऐसा नहीं है कि जमशेदपुर में पहली बार दो फिल्म महोत्सव आयोजित किए जा रहा, बल्कि पहले भी दो आयोजन होते थे, लेकिन प्रतिस्पद्र्धा और विवाद के कारण दोनों ही आयोजन एक ही दिन किए जाते थे। इस बार ऐसा नहीं है।
दोनों संथाली फिल्म महोत्सव के लिए अलग-अलग तिथियों की घोषणा करना इन दोनों ही आयोजनों के बीच की प्रतिस्पद्र्धा के समाप्त होने की ओर इशारा कर रहा है। साफ है कि अब महोत्सव के नाम पर शक्तिप्रदर्शन नहीं, बल्कि कला का प्रदर्शन होगा। पिछले साल रमेश हांसदा व सूर्य सिंह बेसरा इसी आयोजन को लेकर भिड़ गए थे, लेकिन इस बार रमेश हांसदा के नेतृत्व में हो रहा आयोजन जहां 15 अप्रैल को समाप्त हो जाएगा तो वहीं सूर्य सिंह बेसरा का आयोजन पांच मई को पंडित रघुनाथ मुर्मू की जयंती के मौके पर किया जाएगा। 'रास्काÓ के बैनर तले होने वाले सूर्य सिंह बेसरा के फिल्म महोत्सव की तैयारियां भी शुरू हो चुकी है। बेसरा ने बताया कि पांच मई को फिल्म महोत्सव सह पुरस्कार वितरण समारोह का आयोजन किया जाएगा। इस अवसर पर संथाली व क्षेत्रीय फिल्मों के विकास पर भी मंथन करने के साथ एक रोडमैप तैयार किया जाएगा। उधर 'आइसफाÓ (ऑल इंडिया संथाली फिल्म एसोसिएशन) के बैनर तले होने जा रहे फिल्म महोत्सव के बारे रमेश हांसदा ने बताया कि महोत्सव में नृत्य प्रस्तुति देने हेतु ऑडिशन का कार्यक्रम शुरू हो चुका है। शीघ्र ही फिल्मों की स्क्रीनिंग भी की जाएगी। रमेश ने बताया कि फिल्म महोत्सव 11 अप्रैल को शुरू होकर 15 अप्रैल को गोपाल मैदान में भव्य आयोजन के साथ समाप्त हो जाएगा।
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पहले बेसरा-रमेश थे साथ
पहली बार जब फिल्म महोत्सव का आयोजन जमशेदपुर में किया गया तब रमेश हांसदा व सूर्य सिंह बेसरा एक ही बैनर तले इसका आयोजन करते थे, लेकिन विवाद हो जाने के कारण बाद में वे अलग हो गए। अलग होने के बाद विवाद और प्रतिस्पद्र्धा ऐसे बढ़ी कि दोनों एक ही तिथि पर एक ही आयोजन अलग-अलग जगह करने लगे। पिछली बार जमशेदपुर के कलाप्रेमी इस प्रतिद्वंद्विता के गवाह भी बने।

Sunday, December 4, 2011

"दूसरे भारत" में बसती है मंजू की दुनिया


जादूगोड़ा स्थित डुंगरीडीह गांव में मंजू देवी 
भादो माझी, जादूगोड़ा 
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गोद में मासूम बच्चा। इस बात से अनजान कि उसकी मां भूखे रह कर उसे दूध पिला रही है। बच्चे की आंखे बिल्कुल मासूम, लेकिन न जाने क्यों फिर भी उसकी ये मासूम आंखे सवाल करती सी नजर आती हैं? सवाल यह कि भूखे पेट कबतक उसकी मां अपने खून को दूध का शक्ल देकर पिलाती रहेगी...? सवाल यह कि कब तक उसके पिता दस-दस रुपए के लिए अपने खून को पसीने की कीमत पर बेचते रहेंगे...? सवाल यह कि क्या यही उनकी नियति है...? 
मासूम आंखों के इन सवालों का सटीक जवाब तो किसी के पास नहीं, लेकिन इन सवालों के जवाब में एक सवाल जरूर है। सवाल यह कि कब तक ऐसे हालात रहेंगे? 11 साल हो गए। ...और कितना वक्त चाहिए झारखंड को? क्या झारखंड के गांवों में जन्म लेने वाले बच्चों की आंखे यही सवाल दोहराती रहेंगी?
झारखंड के इस बेबसी की जीवंत तस्वीर आज भी मेट्रो-लाइफ स्टइल वाले शहरों से ज्यादा दूर नहीं। जिस मजबूर मासूम का जिक्र हम कर रहे हैं उसकी मजबूरी की झलक भी देश के प्रथम नियोजित (प्लान्ड) शहरों में शामिल जमशेदपुर शहर से महज 14 किमी दूर भाटिन के डुंगरीडीह (जादूगोड़ा) गांव में ही दिखी। यहां मंजू देवी ने अपने पति व छोटे-छोटे बच्चों संग दुनिया बसाई है। उसकी इस दुनिया को 'दूसरे' भारत की तस्वीर कहा जा सकता है। सूखी झाडिय़ों से बनी झोपड़ी में 13 डिग्री तक ठंडी रात ठिठुर कर गुजारने वाले इस परिवार की हकीकत झारखंड के 11 साल के सफर को खुद बयां करती है। पेट की चिंता ने कुछ समय पहले इस परिवार को दुमका से जिलाबदर कर पूर्वी सिंहभूम पहुंचा दिया। दुमका में पहले खेती-बाड़ी से काम चल जाया करता था, लेकिन सूखे व सिंचाई की व्यवस्था न होने के कारण तंगहाली का आलम इस कदर बिगड़ा कि यहां (पूर्वी सिंहभूम) में खजूर के पेड़ से रस जुटा कर बेचने की नौबत आ गई, अब तो इसी से पेट पल जाता है। देसी भाषा में खजूर के इस रस को ताड़ी कहते हैं। ठंड का मौसम है सो किसी तरह बस 10-20 रुपए रोजाना की कमाई हो जाती है। बस इतने में रोटी का इंतजाम करना होता है। महंगाई के इस जमाने में 20 रुपए में एक किलो आटा मुश्किल से मिल पाता है, ऐसे में इतनी ही कमाई में काम चलाना होता है। गर्मी में तो 60-70 रुपए कमाई हो जाती है, लेकिन ठंड में एक-एक दिन तो भूखे रहने की स्थिति आ जाती है।
सूखी झाडिय़ों से बनाए घर में रात गुजरती है। मंजू कहती हैं-''पति अमरूद चौधरी ताड़ी से हमारा पेट पालते हैं। किसी-किसी दिन रोटी नसीब नहीं हो पाती तो ताड़ी पीकर ही सो जाया करते हैं। क्या करें, पढ़े लिखे हैं नहीं, करें भी तो क्या?" सरकारी सुविधाओं के बारे पूछे जाने पर मंजू कहती हैं-''वोट वाला कार्ड तो है बाबू, लेकिन ब्लॉक के बड़े बाबू कहते हैं कि हम दुमका वाले हैं इसलिए इहां हमारा लालकार्ड नहीं बनेगा। मुख्रिया को बोले तो वो हजार रुपया मांगते हैं, बोलते हैं रुपया दो तो हम तुम्हारे अर्जी पर अंगूठा का छाप लगा देंगे। अब हम हजार रुपया कहां से लाएं। खाने का तो ठेकान नहीं....?
मंजू देवी की इस दुनिया में दुमका से पलायन करने की मजबूरी दिखती है, सूबे में पेट पालने के अवसरों की अनुपलब्धता भी दिखती है तो वहीं सरकारी व्यवस्था में पड़ा छेद भी दिखता है। कहा जा सकता है कि मंजू देवी की दुनिया विकासशील भारत से बिल्कुल जुदा है, और उनकी दुनिया अलग भारत में बसती है। उस भारत में जिसमें अमरों का इंडिया अलग है और गरीबों का भारत अलग...। मंजू की दुनिया उसी दूसरे भारत में बसती है....।

Wednesday, November 2, 2011

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Sunday, October 16, 2011

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