पेट पर फिर गोदी जाएंगी गर्म सलाखें
टुसू पर्व : रोंगटे खड़ी करने वाली है आदिवासी समुदाय की परंपरा
कल्पना कीजिए कि आग में तपा कर गर्म की हुईं लोहे की लाल सलाखें हों और उससे जिंदा इंसान के पेट पर गोदा जाए तो कैसा लगेगा? ऐसी कल्पना ही रोंगटे खड़े कर देनेवाली हैं। लेकिन हकीकत में ऐसा किया जाता है। आदिवासी समुदाय के लोग टुसू पर्व (मकर पर्व) के मौके पर छोटे-छोटे बच्चों के पेट (नाभी के इर्दगिर्द) गर्म सलाख गोदते हैं। ऐसा सजा देने के लिए नहीं किया जाता बल्कि उसके भले के लिए किया जाता है। आप सोच रहे होंगे कि किसी को गर्म सलाखों से गोदने से कैसे किसी का भला हो सकता है, तो बता दें कि इस मामले में विज्ञान का तर्क काम नहीं करता बल्कि आदिवासी मान्यता का पालन करते हुए ऐसा किया जाता है। आदिवासी समुदाय में यह परंपरा काफी पुरानी है। समुदाय की मान्यता है कि ऐसा करने से पेट की बीमारियां ठीक होती हैं।
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परंपरा कुछ ऐसी : मकर संक्रांति के दिन सुबह-सुबह गांव के अखाड़े में अलाव जलाया जाता है। इसी अलाव में लोहे के तार (पतली सलाखें) गर्म की जाती है। सलाखें तब तक गर्म की जाती हैं जब तक वह सुर्ख लाल नहीं हो जातीं। इसके बाद पांच से दस वर्ष के बच्चों को खाट पर लिटा कर सलाख से दागा जाता है। कई वयस्क भी खुशी-खुशी अपने पेट पर सलाख दगवाते हैं। सलाख से जिन लोगों को दागा जाता है उन्हें पुरस्कार स्वरूप गुड़ पीठा व मूढ़ी भेंट किया जाता है।
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ऐसी है मान्यता : समुदाय के लोगों का दृढ़ विश्वास है कि पेट में सलाख गोदवाने के बाद आजीवन पेट की बीमारी से निजात मिल जाती है। कई लोग जिन्हें पेट संबंधी बीमारी हुई, इस विश्वास की पुष्टि भी करते हैं। वैसे कई गैर आदिवासी लोग भी इस अवसर पर अपना पेट गोदवाते हैं।
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इनकी सुनिए...
परसुडीह क्षेत्र के सरजामदा गांव में बच्चों को सलाख से गोदने वाले छोटू मुर्मू कहते हैं-'मैं कई वर्षों से सलाख गोदने का काम कर रहा हूं। इससे किसी को भी कभी नुकसान नहीं हुआ है। हर साल खुशी-खुशी लोग इस अनुष्ठान में शामिल होते हैं। सलाख गोदना कला है, इसमें इस बात का खास ख्याल रखना पड़ता है कि पेट के विशेष नसों के आसपास निर्धारित स्थान पर ही गोदा जाए। इससे निश्चित रूप से फायदा होता है। ऐसा न होता तो गर्म सलाखें अपने जिंदा शरीर पर कौन गोदवाता? यह परंपरा तंत्र विद्या पर नहीं बल्कि पुरानी व्यावहारिक शारीरिक चिकित्सा पद्धति पर आधारित है।Ó
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भादो माझी
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