Monday, August 9, 2010

विश्व आदिवासी दिवस - ब्रेडली बर्ट, हम शर्मिदा हैं

भादो माझी, जमशेदपुर : लोकसभा में आदिवासी विकास पर चर्चा करने के दौरान राहुल गांधी ने सरकार का पक्ष रखते हुए कहा था कि जितनी योजानएं और जितनी राशि आदिवासियों के विकास के लिए केंद्र सरकार भेजती है, उसमें से 25 प्रतिशत रकम ही आदिवासी गांवों तक पहुंच पाती है। वास्तविकता बिल्कुल ऐसी ही है। क्योंकि ऐसा न होता तो आज भी आदिवासियों की हालत वैसी ही नहीं होती जैसे आज से 107 साल पहले थी। आज भी आदिवासी भूखे हैं, बेरोजगार हैं और पिछड़े हुए हैं। तभी तो अंग्रेज लेखक ब्रेडली ने सौ साल पहले आदिवासियों की स्थिति की व्यख्या अपने किताब में जैसे की थी उनकी स्थिति आज भी कमोबेश वैसी ही है। कुल लाकर विकास के मोर्चे पर आदिवासी आज तक पस्त हैं। -- टेबल देश में आदिवासियों की जनसंख्या- 8.45 करोड़ राज्य में आदिवासी जनसंख्या - 70,87068 आबादी में भागीदारी- 26.3%(राज्य) जिले में जनसंख्या- 467706(पू. सिंहभूम) आबादी में भागीदीरी- 29.7% (जिला) शिक्षा दर (इंटर पास)- 16.5% (जिला) शिक्षा दल (स्नातक)- 3% (जिला) खेती पर निर्भर आबादी- 83.6% स्कूल जाने वाला आदिवासी बच्चे -43.1% वन क्षेत्र में बसे आदिवासी - 57.3% -शून्य आय वाली आदिवासी आबादी - 33 % -- (इनसेट) जमशेदपुरः आदिवासी! फटेहाल हालत। आधे तन पर कपड़ा। सुविधाओं के नाम पर प्रकृति की गोद और घर के नाम पर जंगल की ओठ। आदिवासियों के जीवन स्तर की जीवंत तस्वीर प्रस्तुत करतीं ये पंक्तियां आज से 107 साल पहले, यानी 1903 में अंग्रेज लेखक ब्रेडली बर्ट ने अपनी किताब छोटानागपुर-ए लिटिल नोन प्रोविन्स ऑफ एम्पायर में लिखी थी। तब देश में अंग्रेजों का शासन था। आज हमारा देश आजाद है, झारखंड भी अलग राज्य के रूप में स्थापित हो चुका है, लेकिन आदिवासियों की हालत जस की तस है। इन 107 सालों में आदिवासी विकास न कर पाने के कारण सरकार, शासन, नेता शर्मिदा हों न हों, आदिवासी समुदाय जरूर शर्मिदा है। शर्मिदा इसलिए क्योंकि उनकी तस्वीर आज भी बिल्कुल 103 की ही जैसी है। अगर ब्रेडली बर्ट आज जिंदा होते तो आज भी वे आदिवासियों की ऐसी ही तस्वीर प्रस्तुत करते। -- (हाइलाइट कंटेंट) छूट रहा खेत से वास्ता : सिंचाई की व्यवस्था नहीं होने के कारण आदिवासियों का खेत से वास्ता छूट रहा है। सिंचाई हेतु स्वर्णरेखा परियोजना 1973 में 357 करोड़ की लागत से शुरू हुई थी, लेकिन उसकी हालत खुद खराब है। अब आदिवासी मजदूर बन रहे हैं, और खेत बेचने पर मजबूर किए जा रहे हैं.. - मूलभूत सुविधाएं ध्वस्त : आदिवासियों को मूलभूत सुविधाओं के नाम पर पेयजल भी उपलब्ध नहीं। नतीजा बीमारी। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक हर 1000 नवजात आदिवासी शिशुओं में से 83 बच्चे मर जाते हैं। यही कारण है कि आदिवासी जनसंख्या वृद्धि की दर सिर्फ 17 फीसदी है। यह तस्वीर सुविधाओं पर खुद सवाल उठा रही है। -- जंगल अब भी जीविका का आधारः आदिवासी को आज भी सरकारी सुविधाएं मयस्सर नहीं। इनकी मजबूरी आज भी इन्हें जंगल में लकड़ियां चुनने को मजबूर करती है, न नरेगा काम आता है न मनरेगा। इनका यह जीवन स्तर सरकारी योजनाओं पर सवाल है... - कंद मूल ही आहारः आदिवासी समुदाय के विकास हेतु केंद्र सरकार ने वर्ष 09-10 में 81 करोड़ रुपये स्वीकृत किए थे, लेकिन यह राशि निर्गत नहीं की गई। नतीजा सामने है। फूस के घर पर रहने की मजबूरी और कंद मूल खाने की मजबूरी सरकार की इच्छाशक्ति पर सवाल उठा रही है...

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